Tuesday, October 23, 2012

यात्रा-वृत्तान्त विधा को केन्द्र में रखकर प्रसिद्ध कवि, यात्री और ब्लॉग-यात्रा-वृत्तान्त लेखक डॉ. विजय कुमार शुक्ल ‘विजय’ से लिया गया एक साक्षात्कार



प्र. सर आपको यात्राओं की प्रेरणा कब और कैसे मिली?

उ. देखिए! यायावरी एक प्रवृत्ति होती है, इसकी प्रेरणा कहीं से मिलती नहीं है। जब मैं माउंटेनियरिंग के लिए गया तो वहां पहाड़ों की सुषमा को देखकर इतना अभिभूत हुआ कि एक कहावत है-‘माउंटेनियरिंग का कीड़ा एक बार यदि आपको काट लेता है तो बार-बार पहाड़ आपको खोजते तथा बुलाते रहते हैं।’

प्र. आप पहली बार यात्रा पर कब गये?

उ. सन् 1968 में मैं पहली बार यूथ हॉस्टल द्वारा प्रायोजित तथा विश्व युवक केन्द्र द्वारा अनुदानित कार्यक्रम के तहत माउंटेनियरिंग के लिए गया था। वेस्टर्न हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट मनाली में ट्रेनिंग लेने के बाद पर्वतारोहण आरम्भ किया। 18000 फ़िट की ऊचाई पर जाने पर वहां और कुछ नहीं केवल हिम-श्रृंग ही दिखाई देते थे। वह इतना अनुपम और अद्भुत दृश्य था कि स्मृति पटल पर अंकित हो गया। तब से निरंतर यात्रा आरम्भ हो गयी। फिर यदि माउंटेनियरिंग नहीं तो ट्रेकिंग, हाइकिंग, बाइकिंग।

प्र. हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में आप कहां तक गये?

उ. देखिए! देश में तो जम्मू और कश्मीर के हर हिस्से, उत्तराखण्ड एवं हिमांचल के विभिन्न दर्शनीय स्थलों तक की यात्रा कर चुका हूं। उस समय हम लोगों का 21 दिन का एक प्रोग्राम चलता था गोलाई में ‘किस्तवार से किस्तवार’ वह हमने पूरा किया। फिर मैं कैम्प लीडर बना। फिर अकेले निकलने लगा फिर ब्रह्मा बेस कैम्प तक गया। बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ तक भी गया हूँ जिसका यात्रा-विवरण मेरे ब्लॉग पर है।

प्र. वहां क्या अच्छा लगा?

उ. सबसे ऊँचाई पर जाने पर बहुत अच्छा लगा। वहां भोज-पत्र के जंगल और धूप इसके अलावा कुछ नहीं तथा जब धूप ख़त्म हो जाती तो लगता कि हर तरफ़ चांदी मढ़ा है फिर सुबह जब पर्वत-श्रृंग पर लाल सूर्य की रोशनी पड़ती है तो वहां सोना मढ़ जाता है तो चांदी और सोना मढ़े पर्वतों को देखकर एक अज़ीब सी सिहरन होती थी और आत्म विस्मृत की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी, ऐसा लगता था कि जैसे हम अपने में न होकर पुरे सृष्टि के एक कण मात्र हो गये हैं और मेरा ‘स्व’ तिरोहित हो गया है।

प्र. विदेशों में आप कहां-कहां गये और उनमें मय हिन्दुस्तान आपको कौन सा देश सबसे अच्छा लगा?

उ. वैसे तो मैंने इंग्लैण्ड, जापान, नीदरलैण्ड, स्वीट्ज़रलैण्ड, ज़र्मनी और फ्रांस की यात्राएं की हैं पर इन सभी में हिन्दुस्तान से अच्छी कोई जगह मुझे नहीं लगी। जितने भी देश घूमें हैं उन सारे देशों की विशेषताएं हिन्दुस्तान के किसी न किसी कोने में अवश्य मिलती हैं। कश्मीर की सुन्दरता के आगे स्वीट्ज़रलैण्ड की सुन्दरता फ़ीकी लगी, वहां भी लेक की सुन्दरता बहुत है और यहां भी पर कश्मीर का खाना और यहां की तहज़ीब वहां से कहीं बढ़कर है। कश्मीरियों का जो अपना अदब और लहज़ा है वह अन्यत्र सम्भव नहीं। ज़र्मनी की हाईएस्ट हिल्स गढ़वाल की खड़ी चट्टानों के आगे कुछ नहीं हैं।

प्र. एक साहित्यकार और एक सामान्य यात्री के यात्रा-दृष्टि में क्या अन्तर होता है?

उ. देखो एक साहित्यकार भी एक सामान्य यात्री ही होता है। अन्तर यही है कि साहित्यकार की दृष्टि पैनी और ख़ोजी होती है तथा वह छोटी-छोटी चीज़ों में भी कुछ ख़ास देख लेता है जिसको सामान्य यात्री मिस कर जाता है।

प्र. विदेशी यात्रा-विवरणों में सामान्य आकर्षण क्या होता है जिसको सचेत यात्री अवश्य देखना चाहेगा?

उ. देखिए विदेश का नयापन ही मुख्य आकर्षण होता है। विदेशी संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन तथा विशेषतः वहां का खुलापन हमारे लिए बड़े आकर्षण का बिन्दु होता है। उनके बात-चीत से लेकर रहन-सहन, खाने-पीने से लेकर उनके आचार-विचार में जो खुलापन है वह हम लोगों में नहीं है। पहले तो टेक्नालॉजी भी हमसे आगे थी जो आकर्षण का एक कारण थी पर अब तो ऐसा नहीं है क्योंकि हिन्दुस्तान भी इस क्षेत्र में कहीं भी विदेशों से पीछे नहीं है। मैं पहली बार जब जापान गया था तो लगा था कि कहां आ गया पर दुबारा गया तो वही सामान्य लगा।

प्र. यात्रा-वृत्तान्तों को आप यथा तथ्य प्रस्तुत कर देना ही उचित समझते हैं या उन्हें साहित्यिक ढंग से रोचकता प्रदान करने के पक्ष में हैं?

उ. निश्चित रूप से रोचक बनाकर ही प्रस्तुत करना चाहिए तभी पठनीयता आती है और और पाठक ऊबता नहीं। लिखने के दो आयाम होते हैं एक कि आप इसलिए लिखते हैं कि इससे लोगों को जानकारी मिले और दूसरा इसलिए लिखते हैं कि लोगों को आनन्द भी आए और वे आह्लादित हों। प्रथम दृष्टिकोण में यथा तथ्य वर्णन कुछ हद तक प्रभावी होता है पर यात्रा-वृत्तान्त की सार्थतकता तब है जब पाठक पढ़ने के दौरान यह भूल जाय कि वह अपने कमरे में बैठकर पढ़ रहा है उसे लगे कि वह सम्बन्धित स्थान पर घूम रहा है और अध्ययनोपरान्त यह अनुभव करे कि अभी-अभी वह उस स्थान से घूमकर आ रहा है। एक बात और मुहावरों, बिम्बों और रूपकों तथा उपमाओं का भी प्रयोग यथा स्थान करना चाहिए क्योंकि यह सब कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने की क्षमता रखते हैं जो वर्णन को रोचक तो बनाते ही हैं साथ ही प्रभावशाली भी बनाते हैं। वैसे मैं केवल यात्रा के विवरण मात्र प्रस्तुत कर देने, जैसे कि यहां गया, वहां गया, यह खाया, वह देखा, आदि को यात्रा-वृत्त ही नहीं मानता उसे तो रिपोर्ताज कहना ही ज़्यादा समीचीन है जब तक कि उसमें कुछ आलंकारिक और रोचकतापूर्ण प्रयोग न हों तथा वह एक व्यवस्थित विवरण न हो।

प्र. यात्रा-वृत्तान्त लेखन में कल्पनाशीलता को आप कितनी तरज़ीह देना चाहेंगे?

उ. कल्पनाशीलता को मैं पूरी तरज़ीह देता हूं पर उस हद तक ही कि तथ्यों का गला न घुटे, तथ्यों को झूठे काल्पनिक ढंग से न प्रस्तुत किया जाय बल्कि तथ्यों के वर्णन में कलात्मकता, रोचकता तथा प्रभावशीलता लाने के लिए कल्पना का सहारा लेना उचित भी है और आवश्यक भी। जैसे एक जगह मैंने लिखा कि- ‘वहां के फूलों को केवल हेलो हाय करता चला गया’ तो क्या मैं सचमुच फूलों को हेलो हाय कर रहा था पर इतना लिखने से विवरण रोचक भी हो गया और मेरी बात भी स्पष्ट हो गयी कि उसे दूर से ही सरसरी निगाह से देखता चला गया वहीं दूसरी ओर यह लिख देना कि जंगल में शेर मिल गया और उसे एक घूसा मारकर भगा दिया नितान्त अव्यवहारिक और अनर्गल है।

प्र. यात्रा-वृत्त विधा के भविष्य के बारे में कुछ कहना चाहेंगे सर?

उ. यात्रा-वृत्त विधा का भविष्य बहुत ही उज्जवल है। पहले यात्रा-वृत्तान्त को एक स्वतन्त्र विधा के रूप में नहीं स्वीकार किया जाता था पर अब वह अपनी लोकप्रियता के चलते एक स्वतन्त्र विधा की हैसियत प्राप्त कर चुका है। क्या होता है कि जो लोग यात्रा करने में किन्हीं कारणों से अक्षम होते हैं उनके लिए यात्रा-वृत्तान्त एक कुंजी के समान होते हैं जिसके माध्यम से वे अंजान स्थानों के बारे में पूर्णतः परिचित ही नहीं हो जाते अपितु यात्रा-वृत्तान्त उन्हें वहां जाने के लिए ख़ासे प्रेरणास्रोत भी होते हैं और यदि यात्रा-वृत्तान्त रोचकतापूर्ण शैली में लिखे गये हों तो भरपूर मनोरंजन भी कर देते हैं। अतः यह विधा प्रत्येक दृष्टिकोण से सर्वथा उपयोगी रहेगी।

मैं. बहुत-बहुत आभार आपका सर! आपने मुझे समय दिया और इस नये विषय पर मेरा मार्गदर्शन किया।

विजय जी. धन्यवाद शालिनी! आपने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और नयी विधा को अपने शोध का विषय बनाया। अभी इस विषय पर बहुत कम शोध हुए हैं आपका यह शोध निश्चितरूप से जिज्ञासु विद्यार्थियों को मार्गदर्शन का काम करेगा। मैं आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।

साक्षात्कर्त्री
शोध-छात्रा (हिन्दी विभाग)
आचार्य नरेन्द्र किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
बभनान, गोण्डा, उ.प्र.
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