Tuesday, October 23, 2012

यात्रा-वृत्तान्त विधा को केन्द्र में रखकर प्रसिद्ध कवि, यात्री और ब्लॉग-यात्रा-वृत्तान्त लेखक डॉ. विजय कुमार शुक्ल ‘विजय’ से लिया गया एक साक्षात्कार



प्र. सर आपको यात्राओं की प्रेरणा कब और कैसे मिली?

उ. देखिए! यायावरी एक प्रवृत्ति होती है, इसकी प्रेरणा कहीं से मिलती नहीं है। जब मैं माउंटेनियरिंग के लिए गया तो वहां पहाड़ों की सुषमा को देखकर इतना अभिभूत हुआ कि एक कहावत है-‘माउंटेनियरिंग का कीड़ा एक बार यदि आपको काट लेता है तो बार-बार पहाड़ आपको खोजते तथा बुलाते रहते हैं।’

प्र. आप पहली बार यात्रा पर कब गये?

उ. सन् 1968 में मैं पहली बार यूथ हॉस्टल द्वारा प्रायोजित तथा विश्व युवक केन्द्र द्वारा अनुदानित कार्यक्रम के तहत माउंटेनियरिंग के लिए गया था। वेस्टर्न हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट मनाली में ट्रेनिंग लेने के बाद पर्वतारोहण आरम्भ किया। 18000 फ़िट की ऊचाई पर जाने पर वहां और कुछ नहीं केवल हिम-श्रृंग ही दिखाई देते थे। वह इतना अनुपम और अद्भुत दृश्य था कि स्मृति पटल पर अंकित हो गया। तब से निरंतर यात्रा आरम्भ हो गयी। फिर यदि माउंटेनियरिंग नहीं तो ट्रेकिंग, हाइकिंग, बाइकिंग।

प्र. हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में आप कहां तक गये?

उ. देखिए! देश में तो जम्मू और कश्मीर के हर हिस्से, उत्तराखण्ड एवं हिमांचल के विभिन्न दर्शनीय स्थलों तक की यात्रा कर चुका हूं। उस समय हम लोगों का 21 दिन का एक प्रोग्राम चलता था गोलाई में ‘किस्तवार से किस्तवार’ वह हमने पूरा किया। फिर मैं कैम्प लीडर बना। फिर अकेले निकलने लगा फिर ब्रह्मा बेस कैम्प तक गया। बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ तक भी गया हूँ जिसका यात्रा-विवरण मेरे ब्लॉग पर है।

प्र. वहां क्या अच्छा लगा?

उ. सबसे ऊँचाई पर जाने पर बहुत अच्छा लगा। वहां भोज-पत्र के जंगल और धूप इसके अलावा कुछ नहीं तथा जब धूप ख़त्म हो जाती तो लगता कि हर तरफ़ चांदी मढ़ा है फिर सुबह जब पर्वत-श्रृंग पर लाल सूर्य की रोशनी पड़ती है तो वहां सोना मढ़ जाता है तो चांदी और सोना मढ़े पर्वतों को देखकर एक अज़ीब सी सिहरन होती थी और आत्म विस्मृत की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी, ऐसा लगता था कि जैसे हम अपने में न होकर पुरे सृष्टि के एक कण मात्र हो गये हैं और मेरा ‘स्व’ तिरोहित हो गया है।

प्र. विदेशों में आप कहां-कहां गये और उनमें मय हिन्दुस्तान आपको कौन सा देश सबसे अच्छा लगा?

उ. वैसे तो मैंने इंग्लैण्ड, जापान, नीदरलैण्ड, स्वीट्ज़रलैण्ड, ज़र्मनी और फ्रांस की यात्राएं की हैं पर इन सभी में हिन्दुस्तान से अच्छी कोई जगह मुझे नहीं लगी। जितने भी देश घूमें हैं उन सारे देशों की विशेषताएं हिन्दुस्तान के किसी न किसी कोने में अवश्य मिलती हैं। कश्मीर की सुन्दरता के आगे स्वीट्ज़रलैण्ड की सुन्दरता फ़ीकी लगी, वहां भी लेक की सुन्दरता बहुत है और यहां भी पर कश्मीर का खाना और यहां की तहज़ीब वहां से कहीं बढ़कर है। कश्मीरियों का जो अपना अदब और लहज़ा है वह अन्यत्र सम्भव नहीं। ज़र्मनी की हाईएस्ट हिल्स गढ़वाल की खड़ी चट्टानों के आगे कुछ नहीं हैं।

प्र. एक साहित्यकार और एक सामान्य यात्री के यात्रा-दृष्टि में क्या अन्तर होता है?

उ. देखो एक साहित्यकार भी एक सामान्य यात्री ही होता है। अन्तर यही है कि साहित्यकार की दृष्टि पैनी और ख़ोजी होती है तथा वह छोटी-छोटी चीज़ों में भी कुछ ख़ास देख लेता है जिसको सामान्य यात्री मिस कर जाता है।

प्र. विदेशी यात्रा-विवरणों में सामान्य आकर्षण क्या होता है जिसको सचेत यात्री अवश्य देखना चाहेगा?

उ. देखिए विदेश का नयापन ही मुख्य आकर्षण होता है। विदेशी संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन तथा विशेषतः वहां का खुलापन हमारे लिए बड़े आकर्षण का बिन्दु होता है। उनके बात-चीत से लेकर रहन-सहन, खाने-पीने से लेकर उनके आचार-विचार में जो खुलापन है वह हम लोगों में नहीं है। पहले तो टेक्नालॉजी भी हमसे आगे थी जो आकर्षण का एक कारण थी पर अब तो ऐसा नहीं है क्योंकि हिन्दुस्तान भी इस क्षेत्र में कहीं भी विदेशों से पीछे नहीं है। मैं पहली बार जब जापान गया था तो लगा था कि कहां आ गया पर दुबारा गया तो वही सामान्य लगा।

प्र. यात्रा-वृत्तान्तों को आप यथा तथ्य प्रस्तुत कर देना ही उचित समझते हैं या उन्हें साहित्यिक ढंग से रोचकता प्रदान करने के पक्ष में हैं?

उ. निश्चित रूप से रोचक बनाकर ही प्रस्तुत करना चाहिए तभी पठनीयता आती है और और पाठक ऊबता नहीं। लिखने के दो आयाम होते हैं एक कि आप इसलिए लिखते हैं कि इससे लोगों को जानकारी मिले और दूसरा इसलिए लिखते हैं कि लोगों को आनन्द भी आए और वे आह्लादित हों। प्रथम दृष्टिकोण में यथा तथ्य वर्णन कुछ हद तक प्रभावी होता है पर यात्रा-वृत्तान्त की सार्थतकता तब है जब पाठक पढ़ने के दौरान यह भूल जाय कि वह अपने कमरे में बैठकर पढ़ रहा है उसे लगे कि वह सम्बन्धित स्थान पर घूम रहा है और अध्ययनोपरान्त यह अनुभव करे कि अभी-अभी वह उस स्थान से घूमकर आ रहा है। एक बात और मुहावरों, बिम्बों और रूपकों तथा उपमाओं का भी प्रयोग यथा स्थान करना चाहिए क्योंकि यह सब कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने की क्षमता रखते हैं जो वर्णन को रोचक तो बनाते ही हैं साथ ही प्रभावशाली भी बनाते हैं। वैसे मैं केवल यात्रा के विवरण मात्र प्रस्तुत कर देने, जैसे कि यहां गया, वहां गया, यह खाया, वह देखा, आदि को यात्रा-वृत्त ही नहीं मानता उसे तो रिपोर्ताज कहना ही ज़्यादा समीचीन है जब तक कि उसमें कुछ आलंकारिक और रोचकतापूर्ण प्रयोग न हों तथा वह एक व्यवस्थित विवरण न हो।

प्र. यात्रा-वृत्तान्त लेखन में कल्पनाशीलता को आप कितनी तरज़ीह देना चाहेंगे?

उ. कल्पनाशीलता को मैं पूरी तरज़ीह देता हूं पर उस हद तक ही कि तथ्यों का गला न घुटे, तथ्यों को झूठे काल्पनिक ढंग से न प्रस्तुत किया जाय बल्कि तथ्यों के वर्णन में कलात्मकता, रोचकता तथा प्रभावशीलता लाने के लिए कल्पना का सहारा लेना उचित भी है और आवश्यक भी। जैसे एक जगह मैंने लिखा कि- ‘वहां के फूलों को केवल हेलो हाय करता चला गया’ तो क्या मैं सचमुच फूलों को हेलो हाय कर रहा था पर इतना लिखने से विवरण रोचक भी हो गया और मेरी बात भी स्पष्ट हो गयी कि उसे दूर से ही सरसरी निगाह से देखता चला गया वहीं दूसरी ओर यह लिख देना कि जंगल में शेर मिल गया और उसे एक घूसा मारकर भगा दिया नितान्त अव्यवहारिक और अनर्गल है।

प्र. यात्रा-वृत्त विधा के भविष्य के बारे में कुछ कहना चाहेंगे सर?

उ. यात्रा-वृत्त विधा का भविष्य बहुत ही उज्जवल है। पहले यात्रा-वृत्तान्त को एक स्वतन्त्र विधा के रूप में नहीं स्वीकार किया जाता था पर अब वह अपनी लोकप्रियता के चलते एक स्वतन्त्र विधा की हैसियत प्राप्त कर चुका है। क्या होता है कि जो लोग यात्रा करने में किन्हीं कारणों से अक्षम होते हैं उनके लिए यात्रा-वृत्तान्त एक कुंजी के समान होते हैं जिसके माध्यम से वे अंजान स्थानों के बारे में पूर्णतः परिचित ही नहीं हो जाते अपितु यात्रा-वृत्तान्त उन्हें वहां जाने के लिए ख़ासे प्रेरणास्रोत भी होते हैं और यदि यात्रा-वृत्तान्त रोचकतापूर्ण शैली में लिखे गये हों तो भरपूर मनोरंजन भी कर देते हैं। अतः यह विधा प्रत्येक दृष्टिकोण से सर्वथा उपयोगी रहेगी।

मैं. बहुत-बहुत आभार आपका सर! आपने मुझे समय दिया और इस नये विषय पर मेरा मार्गदर्शन किया।

विजय जी. धन्यवाद शालिनी! आपने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और नयी विधा को अपने शोध का विषय बनाया। अभी इस विषय पर बहुत कम शोध हुए हैं आपका यह शोध निश्चितरूप से जिज्ञासु विद्यार्थियों को मार्गदर्शन का काम करेगा। मैं आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।

साक्षात्कर्त्री
शोध-छात्रा (हिन्दी विभाग)
आचार्य नरेन्द्र किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
बभनान, गोण्डा, उ.प्र.
27131

Monday, September 17, 2012

यात्रा-वृत्तान्त विधा को केन्द्र में रखकर प्रसिद्ध कवि, सम्पादक, समीक्षक और यात्रा-वृत्तान्त लेखक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से लिया गया एक साक्षात्कार


सक्षात्कार लेती हुए मैं शालिनी पाण्डेय और डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

प्र. सर मूलतः आप एक समीक्षक, कवि और सम्पादक हैं तो यात्रा-वृत्त-लेखन की तरफ़ आपका रुझान कैसे हुआ?

उ. एक तरह की जिज्ञासा रही चीज़ों को जानने की और संयोग भी घटित होता रहा तो मैंने यही सोचा कि जहां जायें वहां के बारे में थोड़ी जानकारी भी रखनी चाहिए और जानकारी प्राप्त करने के बाद एक लेखक उसे पाठकों तक भी पहुँचाना चाहता है तो ये यात्राएं और यात्रा-वृत्त अपनी जिज्ञासा को तृप्त करने तथा यात्रा-वृत्त उसको पाठकों तक पहुँचाने के प्रयत्न हैं दूसरी बात यह है कि यात्रा के क्रम में बहुत से ऐसे स्थान दिखाई पड़ते हैं जो आपको आकर्षित करते हैं तो उनका सम्बन्ध जानकारी से नहीं होता है उनका सम्बन्ध मनुष्य के सौन्दर्य-बोध से होता है। वो आपको आकर्षित करते हैं इसलिए आप उनके बारे में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं। जैसे मान जीजिए कोई पहाड़ है, कोई समुद्र है, कुछ ऐसे प्राकृतिक सौन्दर्य हैं, पुष्प हैं; और मूलतः जो यात्रा है न! वह अपने से बाहर निकलने का एक प्रयास है। यात्रा-वृत्त-लेखन में एक बात और है कि जिन चीज़ों को आप जानते हैं उनके बारे में ज़्यादा नहीं लिख सकते लेकिन जिन चीज़ों को आप पहली बार देखते हैं, उससे प्रभावित होते हैं उन्ही पर आप यात्रा-संस्मरण लिखना चाहते हैं, लिखते हैं। कोई ऐसी घटना जो आपको प्रभावित करती है, जो विरल घटना लगती है उसे आप नोट करते हैं और बाद में उनका अनुभव के आधार पर किया गया विस्तृत-वर्णन यात्रा-वृत्त का रूप ले लेता है मेरे द्वारा भी ऐसा ही प्रयास किया गया जो यात्रा-वृत्त बन गया। 

प्र. आपकी देशी तथा विदेशी दोनों यात्राओं का अगर उद्देश्य महज़ यात्रा ही रहा हो तो वस्तुओं, स्थानों आदि के देखने-परखने का दृष्टिकोण क्या था? 

उ. हमारी लगभग सारी यात्राओं का उद्देश्य प्रायः यात्रा ही रहा है। हमारे यात्राओं में एक तो जहां-जहां गया हूँ, देश की बात बता रहा हूँ, वहां के आस-पास के मन्दिरों को मैंने देखा है इसे धार्मिक यात्राएं तो नहीं कहेंगे लेकिन अपने देश के संस्कारों को समझने और आस्था-केन्द्रों को जानने की काफ़ी कोशिश है। अपने देश में मैं जहां-जहां गया हूँ वहां-वहां के प्रसिद्ध मन्दिरों के दर्शन के उपरान्त उनके बारे में लिखा। कुछ तथ्य दिये हैं, उनके बारे में कुछ किंवदन्तियां हैं उसे भी दिया है और जहां तक विदेश यात्राओं का सवाल है, विदेश यात्राओं में देखा कि यूरोप वगैरह के जो देश हैं वे हर किसी रूप में भारत से अलग हैं किन्तु मैं वहां भारतीय मन से गया। उनके जीवन, रीति-नीति का भारतीय दृष्टि के साथ-साथ तुलना भी करता रहा। कहीं लगता था कि यह लोग कुछ मामले में हमसे बेहतर हैं कभी लगता रहा कि हम लोग कई मामलों में उनसे बेहतर हैं। इसी क्रम में हमारा एक नया यात्रा-संस्मरण ‘अमेरिका और यूरोप में एक भारतीय मन’ ज्ञानपीठ से आ रहा है।

प्र. अन्य स्थापित विधाओं के होते यात्रा-वृत्त विधा का उद्भव और समसामयिक हिन्दी गद्य-विधाओं में बड़े जोर-शोर के साथ इसके उभरने का मूल कारण क्या हो सकता है? क्या यात्राओं के अनुभव अन्य स्थापित विधाओं जैसे- कविता, कहानी आदि में अभिव्यक्ति नहीं पा सकते?

उ. आपके प्रथम सवाल कि यात्रा-वृत्त को अधिक तरज़ीह क्यों दी जा रही है उसका उत्तर यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने से और अपने परिवेश से अब बाहर निकलकर और दुनिया भी देखना चाहता है क्योंकि संचार माध्यमों के इज़ाफ़े की वज़ह से अनेक स्थानों के नामों से वह परिचित हो चुका है और उसके प्रति उसकी जिज्ञासा भी बढ़ गयी है, चूंकि वह सशरीर सर्वत्र पहुंच नहीं सकता अतः यात्रा-वृत्तों को पढ़कर शब्दों के माध्यम से ही वह बाहर की दुनिया देख लेता है। रहा दूसरा सवाल कि- क्या यात्राओं के अनुभव अन्य स्थापित विधाओं जैसे- कविता, कहानी आदि में अभिव्यक्ति नहीं पा सकते? तो ऐसा है कि जो अनुभव होता है वह विधाओं को अपने साथ लेकर चलता है। अनुभव शब्दों के माध्यम से ही व्यक्त होता है आत्मा जैसे शरीर के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाती है। कुछ अनुभव ऐसे हैं जो कविता में आते हैं कुछ उनमें नहीं अट पाएगा तो कहानी में आएगा, अधिक लिखने का अभ्यासी उपन्यास लिखेगा उसी प्रकार यात्राओं के अनुभव के अभिव्यक्तन-माध्यम को यात्रा-वृत्तान्त कह दिया गया। हम यात्राओं पर जा रहे हैं अनेक लोगों के व्यवहार देख रहे हैं अनेक वस्तुओं और स्थानों से हमारा परिचय हो रहा है इन सबका वर्णन तथ्यपरक भी होगा और अनुभूति परक भी इसे हम कविता में तो पूरा का पूरा नहीं ही व्यक्त कर सकते यद्यपि कुछ लोगों ने यात्रा-वृत्तान्त भी कविता में लिखने का प्रयास किया है।

प्र. सर! विदेशी यात्रा-विवरणों में अक्सर प्रकृति-पर्यवेक्षण नहीं के बराबर होता है क्या कारण है? जबकि अंजानी जगहों की प्राकृतिक सुन्दरता के प्रति पाठक विशेष जिज्ञासु होते हैं।

उ. ऐसा है कि यात्रा-विवरणों का मुख्य प्रतिपाद्य यात्रा-उद्देश्यों से प्रभावित होता है। जब यात्राएं केवल यात्राओं के लिए होती हैं जिनमें प्राकृतिक सौन्दर्य से सम्पन्न जगहों का चयन किया जाता है तो निश्चित रूप से प्राकृतिक पर्यवेक्षण ही यात्रा-वृत्तान्तों का प्रतिपाद्य होता है पर जब उद्देश्य कुछ और होता है तो यह विषय गौड़ हो जाता है। तब जिस शहर में निश्चित उद्देश्य से यात्री जाता है उसी के निकटस्थ प्राकृतिक स्थानों का ही भ्रमण कर पाता है अगर समय मिला तो। जैसे मैं नीदरलैण्ड गया तो वहां का प्रसिद्ध प्राकृतिक सुषमा से भरपूर स्थान कोकेनहॉक गया और उसका वर्णन किया वह ऐसी जगह है जैसे हमारे यहां फूलों की घाटी। अतः ऐसा नहीं है कि विदेशी यात्रा-वृत्तान्तों में प्रकृति का वर्णन नहीं है। किन्तु यह भी सही है कि विदेशी यात्राएं अक्सर सोद्देश्यीय होती हैं इसलिए सम्भव है कि अनेक यात्रा-वृत्तान्तों में प्रकृति-वर्णन का अभाव पाया जाता हो।

प्र. आप यात्रा-वृत्तान्तों को साहित्यिक आभूषणों यथा- उपमाओं, उत्प्रेक्षाओं, प्रतीकों, बिम्बों, लोकोक्तियों, मुहावरों आदि के प्रयोंग से रोचकता प्रदान करने के व्यवहार को कहां तक सही मानते हैं? अथवा तथ्यों के विवरण मात्र को प्रस्तुत कर देने की सीमा को स्वीकार कर लेते हैं?

उ. हम साहित्यिक और आलंकारिक भाषा को निश्चित रूप से यात्रा-विवरण हेतु स्वीकार करते हैं इनसे उस विवरण में रोचकता भी आ जाती है और प्रतीकों तथा बिम्बों और अलंकारों के प्रयोग से उसमें जान भी एवमेव हम सटीक बात कह भी सकते हैं पर इन सबका प्रयोग उस सीमा तक ही कि तथ्यों की प्रामाणिकता में कमी न आने पाये। एक साहित्यकार जब यात्रा-वृत्त लिखता है तो उसकी भाषा सशक्त और अलंकारपूर्ण होगी ही। लेकिन जब सामान्य यात्री यात्रा-वृत्त लिखेगा तो वह महज़ तथ्यों का विवरण ही प्रस्तुत कर दे यही उसका अभीष्ट है और उसका सामर्थ्य भी।

प्र. इसी क्रम में एक और सवाल सर! कि यात्रा-वृत्तान्त लेखन में कल्पनाशीलता को आप किस हद तक स्वीकार करना चाहेंगे?

उ. बिना कल्पना के तो लिखा ही नहीं जा सकता। कल्पना का तत्त्व तो बड़ा बुनियादी तत्त्व है विधा कोई भी हो। पर यात्रा-वृत्त विधा में कल्पना ऐसी नहीं होनी चाहिए जो वास्तविकता को ढक दे या तिरोहित कर दे।

प्र. मैंने दस्तावेज़ पत्रिका में पढ़ा है सर! आप द्वारा ज़ल्द ही की गयी चीन की यात्रा का विवरण, जो बड़ा सराहा गया, जिसमें आपने अनेक पुस्तकों की समीक्षाओं के माध्यम से चीन के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आर्थिक, ऐतिहासिक आदि पक्षों पर रोचक और ज्ञानवर्द्धक सूचनाएं प्रस्तुत की हैं। यात्रा-वृत्त-लेखन में पुस्तकीय समीक्षा के माध्यम से गन्तव्य के अतीत और वर्त्तमान के निदर्शन के इस अनूठे प्रयोग की प्रेरणा आपको कहां से मिली?

उ. ऐसा है कि मैं चीन गया तो एक तो समय का अभाव दूसरे भाषायी कठिनाई के चलते वहां कुछ विशेष जान नहीं सका। यद्यपि जिज्ञासा बहुत थी फिर सोचा कि यहां के रहन-सहन, संस्कृति, इतिहास, माओत्से तुंग, चीन की दीवार, कृषि आदि के बारे में लोगों को अपने दृष्टिकोण से क्या बताऊँगा वापस लौटकर। मुझे जो एक तरीक़ा सूझा वह यह कि वहां कि कुछ पुस्तकों को पढ़ा जाय फिर उसके आधार पर ही कुछ बता दिया जाय और यह एक ईमानदार उत्तर है कि हमने वही किया इसे आप मेरी मज़बूरी समझ सकती हैं कि मैं वहां वह सब कुछ देख, सुन, समझ नहीं पाया जो देखना, सुनना, समझना चाहता था।

प्र. आपके मॉरिशस यात्रा-विवरण में मैंने पढ़ा है कि वहां के अप्रवासी भारतीय, भारतीय त्योहारों, परम्पराओं, और रीति-रिवाज़ों को बख़ूबी मानते और मनाते हैं इस तरह विदेशों में भारतीय परम्पराओं का उज्जीवन हो रहा है जबकि भारत से यहां की परम्पराएं लुप्त हो रही हैं इस विषय में आप क्या कहना चाहेंगे?

उ. असल में होता यह है कि जहां जो क़ौम अल्पसंख्यक होती है तो उसे किसी न किसी रूप में अपनी पहचान बनानी होती है और यह पहचान बनती है उसकी अपनी सांस्कृतिक विरासत और परम्पराओं से यही उनमें एका भी स्थापित करती हैं और उन्हें सुरक्षा भी प्रदान करती हैं हरविध। यही बात मॉरिशस ही क्या दुनिया के प्रत्येक देशों में अप्रवासी भारतीयों के साथ पायी जाती है। जब लोग मॉरिशस गये तो यहां से रामायण और गीता ले गये। वहां भी यहां की सांस्कृतिक और धार्मिक नामाभिहित नगरियों की स्थापना किया स्थिति यह है कि वहां भी अयोध्या और काशी नगरी पायी जाती है। वे अपनी परम्पराओं और त्यौहारों को अधिक जोशो ख़रोश से मनाते हैं क्योंकि उसी में उनकी सुरक्षा की गारंटी भी है। यद्यपि अब नयी पीढ़ियों में यह भावना वैश्वीकरण के चलते धीरे-धीरे तिरोहित हो रही है भारत सी फिर भी कुछ ज्यादा है क्योंकि वहां यही उनकी पहचान का उपालम्भ है।

प्र. और अन्त में सर यह बताइए कि किस देश की यात्रा ने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया और क्यों?

उ. मैंने कई देशों की यात्रा की पर सबसे अधिक हमें यूरोप ने प्रभावित किया क्योंकि हम वहां अधिक समय दे पाये, वहां के साहित्यकारों और सामान्य तथा विशिष्ट पुरुषों से मिल सके जिसके कारण यूरोप हमारी समझ में कुछ ज्यादा ही आया जबकि अन्य जगहों पर हम उतना समय नहीं दे पाये जिससे कि अधिक जान सकें। अमेरिका और रूस की तुलना करें तो रूस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अमेरिका से ज़्यादा सम्पन्न दिखता है यद्यपि अमेरिका तक्नीकी दृष्टि से रूस से अधिक धनी है। और अन्त में मैं आप और आपके शोध के बारे में कहना चाहूंगा कि आपने एक अनूठे और नये विषय पर शोध कार्य कर रही हैं जिसका भविष्य अति उज्जवल है। इस पर शोध की आवश्यकता भी है मेरे ख़याल से बहुत कम शोध हुए हैं इस विषय पर। इसी के साथ मैं शालिनी जी आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।

मैं. बहुत-बहुत आभार आपका सर! आपने मुझे समय दिया और इस नये विषय पर मेरा मार्गदर्शन किया।
                                                                                                                                      -शालिनी पाण्डेय