Wednesday, July 27, 2011

हिन्दी के यात्रा-वृत्तान्त : प्रकृति और प्रदेय (परिचय खण्ड)

परिचय :

    हिन्दी गद्य साहित्य की अनेक विधाओं में यात्रा-वृत्तान्त अपनी अनुभूतिमयता, प्रकृति-पर्यवेक्षण, स्थान वैशिष्ट्य और हृदय की रागात्मक चेतना से ओत-प्रोत होने के कारण न केवल निबन्ध की तरह अपितु रामचन्द्र तिवारी के शब्दों में- ‘‘सामान्य वर्णनात्मक शैली के अतिरिक्त पत्र और रिपोतार्ज शैली में लिखे जाते हैं इसलिए इनमें निबन्ध तथा संस्मरण आदि कई ग्रन्थ-रूपों का आनन्द एक साथ मिलता है।’’1 अतएव यात्रा-वृत्तान्त पाठक को अद्यतन रमाये रखने के कारण आज एक लोकप्रिय विधा बन चुका है। भू-मण्डलीकरण और हवाई जहाज की यात्रा की सुलभता के कारण सुदूर और दुर्गम स्थानों पर जाना भी सुगम हो गया है। इसलिए यात्रा-भीरु भी अब यात्राओं से नही कतराते। अपनी यात्राओं के खट्टे-मीठे अनुभव बहुत से यात्री लिखते आ रहे हैं किन्तु उनके लेखन और साहित्य से गहरे जुड़े साहित्य-सर्जकों के यात्रा-वृत्तान्त में अन्तर है। कोई भी साहित्यकार जब यात्रा करता है तो उसकी यात्राओं का उदे्श्य सैलानी, राजनेता, पत्रकार और वैज्ञानिकों की यात्राओं से भिन्न होता है। वह अपने गन्तव्य के इतिहास के उन अनखुले और अधखुले पक्षों का भी उद्घाटन करता है तथा अपनी सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति से उसे एक प्रकार की ‘रचना’ या ‘सृजन’ का रूप और आकार प्रदान कर देता है जो सामान्य यात्रियों के अन्तर्बोध में कभी भी नहीं आ सकते हैं। यह रचनाकार यात्रियों की विशिष्ट दृष्टि का ही प्रतिफल हो सकता है। एक रचनाकार यात्री का वर्णन और विवरण उसकी अपनी अन्तरानुभूति का आधार पाकर पाठक को आन्तरिक और वाह्य दोनों रूपों में समृद्ध करता है इस प्रकार वह पाठक को वर्णित गन्तव्य तक मनसः पहुँचाने में भी समर्थ होता है। डॉ0 रामचन्द्र तिवारी के शब्दों में- ‘‘यात्रा-वृत्तान्तों में देश-विदेश के प्राकृतिक दृश्यों की रमणीयता, नर-नारी के विभिन्न जीवन सन्दर्भ, प्राचीन एवं नवीन सौन्दर्य-चेतना की प्रतीक कलावृत्तियों की भव्यता तथा मानवीय सभ्यता के विकास के देवदत्त अनेक वस्तु, चित्र, यायावर लेखक-मानस में रूपायित होकर वैयक्तिक रागात्मक उष्मा से दीप्त हो जाते हैं। लेखक अपनी विम्बविधायिनी कल्पना-शक्ति से उन्हें पुनः मूर्त करके पाठकों की जिज्ञासावृत्ति को तुष्ट कर देता है।’’2

    मनुष्य का चाहे बचपना हो अथवा युवावस्था उसकी प्रवृत्ति सदैव से ही घुमक्कड़ी रही है। वह अपने वाल्यकाल से लेकर प्रौढ़ावस्था तक कहीं न कहीं भ्रमण करने की चेष्टा किया करता है। इस भ्रमण में जो भी पात्र और विचार सम्पर्क में आते हैं वह उसक मानस-पटल पर अंकित हो जाते हैं। जब वह उन विचारों को लिपिबद्ध करता है तब वहीं से यात्रा-साहित्य का जन्म होता है। यात्रा-साहित्य-सृजन के मूल में सर्जनकर्ता की प्रकृति के प्रति प्रेम और उसके दार्शनिक विचार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यात्रा-वृत्त लिखने वाले लेखक को वहां के नगर, मुहल्लों, रीति-रिवाजों, धार्मिक प्रवृत्तियों एवं उसकी ऐतिहासिकता का भी वर्णन पूर्ण दक्षता से करना होता है। इस प्रकार उस स्थान, जहां से यात्रा का सन्दर्भ जुड़ता है का चित्र पूर्ण रूपेण पाठक के मानस पटल पर उकेर देना सफल यात्रा-वृत्तान्त का परिचायक है। अतः यात्रा-वृत्तान्त का पाठक पूर्ण मनोयोग से उस स्थान के भौतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक आदि सम्पूर्ण पक्षों से विधिवत् तादात्म्य स्थापित कर लेता है। महादेवी वर्मा के अनुसार- ‘‘संगीत थम जाने पर गायक जैसे भैरो के वाद्य और अपने गीत के संगीत पर विचार करने लगता है वैसे ही यात्री अपनी यात्रा के संस्मरण दुहराता है। स्मृति के प्रकाश में अतीतकालीन यात्रा को सजीव कर देने का तत्त्व इस वर्णन को साहित्य का स्वरूप प्रदान करता है। पर्यटक के साथ पाठक भी अतीत में जी उठता है।’’3 


सन्दर्भ-
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  1. डॉ0 तिवारी रामचन्द्र, हिन्दी का गद्य इतिहास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1992, पृ0-29
  2. वही, पृ0-296
  3. प्रजापति डॉ. जगदीश कुमार, हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रवृयात्मक अध्ययन, प्रथम संस्करण भवदीय प्रकाशन, अयोध्या, फ़ैज़ाबाद, 2001, पृ0-468.

                                                                                क्रमशः...